06 December 2010

Introduction

Dr.B.R.AMBEDKAR
IntroductionBorn in a class considered low andoutcast. Dr. Ambedkar fought untiringly for the downtrodden. The boy who suffered bitter humiliation became the first Minister for Law in free India, and shaped the country’s Constitution. A determined fighter, a deep scholar, human to the tips of his fingers.
Author - D.S.Sesharaghavachar

Dr. B. R. Ambedkar
Two brothers who were studying at school went to see their father. They alighted at the Masur Railway Station, engaged a cart and continued their journey. They went some distance; then the cart driver came to know that they belonged the Mahar cast. He at once stopped the cart and raised one end of it; the poor boys tumbled down and fell on the ground. He shouted at them and scolded them as he pleased.
It was afternoon. The boys were thirsty. They begged for water but no one would give them a drop. Hours passed. Still no one gave them water. They were not allowed even to go near tanks and wells.
The younger brother’s name was Bhimrao Ambedkar. A few days passed. One day Bhim felt unbearable thirst. He drank water from a well. Someone noticed it. A few people gathered and beat the boy mercilessly.
The boy had to get his hair cut. Even a barber who used to cut the hair of a buffalo would not touch the boy’s hair.
On another day, the boy was going to school. It was raining heavily. He took shelter near the wall of a house. The lade of the house saw this. She was very angry. She pushed him into the rain. The boy fell into the muddy water. All his books fell into the water too.
In this way, again and again, the young boy was humiliated. His mind became a volcano of bitter feelings.
Why did the people ill-treat the boy in this way?
The boy had not committed any sin. But he was born in the Mahar cast. It was the belief of many Hindu that this cast is low and those born in this cast should not be touched by people of the other castes. Like the people of the Mahar caste, people of many other castes are called ‘untouchables’ and have suffered injustice for hundreds of years.

Dr Bhim Rao Ambedkar


Dr Bhim Rao Ambedkar(April 14, 1891 - December 6, 1956)
IT was a hot summer’s day. Unable to control his thirst, a little boy goes to a pond and begins to drink water. He is spotted and beaten mercilessly. His crime? He is an untouchable. High caste Hindus in India have been ill-treating the untouchables for centuries, but not many have the guts to stand up and fight for their rights: Bhim Rao Ambedkar, the little boy, had. This incident was not his first bitter experience at the hands of high caste Hindus. In school, he was not allowed to sit along with other friends; his teacher refused to teach him Sanskrit; if he touched someone by mistake, elaborate purification rituals were held. How much indignity could he tolerate?
Dr Bhim Rao AmbedkarIn spite of being the son of a sepoy, Dr. Ambedkar had the good fortune of getting good education. Later, Sayaji Rao, the Maharaja of Baroda offered him a scholarship that enabled him to have higher education in the USA, Germany, and England. Working almost round the clock, he earned a doctorate from Columbia University. While in America, he for the first time learnt what it meant to be free from discrimination, although he did not fail to notice the way blacks were being discriminated there. He later left for Britain to study at the London School of Economics. After his return to India, he became Professor of Economics at the Sydenham College of Commerce. Unfortunately he could not continue to work because of his low caste. Since most of his colleagues refused to speak to him, he was forced to move to Bombay.
Humiliated, insulted, and hurt again and again, Ambedkar realised that he had to do something to change the equation. In 1927, he organised asatyagraha to enable Harijans to draw water from a public tank at Mahed. He also fought for the right to enter a temple at Amravati. He burnt the Manusmriti, the book that supported the caste system. About this time he began to harbour thoughts about giving up his Hindu religion, he even thought of demanding a separate homeland for the backward classes. But on the eve of Independence, he realised that the future of his community was with India.
He was appointed Law Minister after Independence, and as chairman of the Drafting Committee of the Indian Constitution, he was one of the authors of the Indian Constitution. It is ironical that the same man who two decades earlier had burnt the Manusmriti, was now called upon to draft a new smriti - the Constitution of Independent India.
In spite of all the assurances of the government, Ambekar was pained to notice that there was no significant improvement in the lot of the depressed classes, even after Independence. He used to say that railways and factories had done more to combat untouchability than the efforts of social reformers.
Totally fed up with the system, he along with a hundred thousand followers embraced Buddhism at Nagpur on October 14, 1956. 

कबीर वाणी अमृतसन्देश

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


कबीर के शब्द-शब्द में क्रांति है। जीवन के किसी भी पहलू में उन्होंने पाखंड को स्वीकार नहीं किया। इसीलिए उनके शब्दों में कहीं-कहीं बहुत तीखी धार है, जो बिना किसी का पक्ष लिये दिखावे को परत-दर-परत चीरती जाती है। संत कबीर का अनुभव वैसे तो पद्य की कई विधाओं में सहज रूप से प्रवाहित हुआ लेकिन साखियों के रूप में उसने जन-मन को गहरे तक प्रभावित किया। इस पुस्तक में हमने ऐसी अमृतमयी साखियों को चुना है, जो मुर्दे में भी जीवन का संचार कर देती हैं।

ग्रंथन माहीं अर्थ है, अर्थ माहिं है भूल।
लौ लागी निरभय भया, मिटि गया संसै सूल।।

हंसा बगुला एक सा, मानसरोवर माहिं।
बगा ढिंढौरे माछरी, हंसा मोती खांहि।।

सब आये उस एक में, डार पात फल फूल।
अब कहो पाछै क्या रह्या, गहि पकड़ा जब मूल।।

कबीर सभी के हैं। उनकी न कोई
जाति है, न कोई धर्म है। इसलिए सब
कबीर सब के हैं। कबीर ने हमेशा ‘सच’ का पक्ष लिया। सत्य ही उनकी नजर में सर्वश्रेष्ठ है- सर्वश्रेष्ठ साधन भी, परमसाध्य भी। इसी मायने में कबीर को मानने का अर्थ है सच को मानना।
जो सत्य की राह छोड़ पाखंड का सहारा लेता है, कबीर उसे फटकार देते हैं- कोई लिहाज नहीं करते। वह कोई भी क्यों न हो।

अपनी मस्ती में कबीर ऐसी वाणी भी बोलते हैं, जो है तो बिल्कुल साधारण लेकिन बनावटी आदमी की समझ में नहीं आती। क्योंकि वह संत की वाणी है। संसारी को वह अटपटी लगती है। उसे समझ पाता है, जो अध्यात्म की झलक ले पाता है, जो अध्यात्म की झलक ले चुका है।
सर्वसाधारण के हैं कबीर और विशेष के भी। तभी तो कबीर को जाग्रत गुरु कहा गया है।

कबीर वाणी अमृतसन्देश


सत्यपुरुष कबीर साहेब के साखी ग्रंथ से संग्रहित
अमृतमयी साखियों का अलौकिक संकलन


‘कबीर’ नाम उस पवित्रता एवं सत्यता का जिसकी शरण-सीमा में आने वाला हर जिज्ञासु ‘साधु’ हो जाता है।
यह नाम हिन्दी साहित्य में ही नहीं, प्रत्युत समूचे संत-साहित्य एवं कर्तृत्व दोनों ही महान हैं। विपरीत काल-परिस्थियों की परवाह न कर, जिस प्रकार उन्होंने सामाजिक कुरीतियों तथा आडम्बर-पाखंडों का निर्भीकता से विरोध किया, वह स्तुत्य है। आपसी मतभेद को मिटाकर सर्व-समानता के मानव को-धर्म को कबीर साहब ने पुष्ट किया। अज्ञान-जनित भ्रम का विध्वंस करने वाले और असत्य को रौंदकर घट-घट में सत्य का दिग्दर्शन कराने वाले उन सदगुरु, कबीर साहेब को उनके श्रद्धालु संत-भक्तों ने ‘सत्यपुरुष’ कहा।

मुमुक्षु-जनों के कल्याणर्थ ही कबीर साहेब का प्राकट्य हुआ। जल-कीचड़ से निर्लित कमल-पत्र की भांति, उनका जीवन संसारिक विषय-कामनाओं से मुक्त था। जीवन रूपी चादर को उन्होंने विवेक, वैराग्य रूपी यत्न से ओढ़कर अन्त तक मलिन नहीं होने दिया। प्रमाण के लिए उन्हीं के शब्दों में-‘‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’’। इस चादर को छोड़ने पर उसके स्थान पर फूल ही मिले जो सबने आपस में बांट लिए।

कबीर साहेब की निष्पक्ष एवं न्याय-संगत वाणी उनके सत्यार्गत उनके सत्यज्ञान का मानव-मात्र के हितार्थ’ ‘अमृत सन्देश’ है, जिसके अन्तर्गत उनके सत्यज्ञान का प्रकाश मानवता के सभी पार्श्वों को प्रकाशित करता है। हर वाणी अद्वितीय तथा अनमोल है। अलग-अलग अध्यायों में विभाजित उनकी मंगलमयी साखियों को, मूल एवं सरलार्थ सहित ग्रन्थ रूप में प्रकशित करते हुए अत्यन्त खुशी हो रही है। हमें आशा ही नहीं, अटूट विश्वास है कि आप इससे अवश्य ही लाभान्वित होंगे।

-प्रकाशक

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान
सीस दिए जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।
तीरथ न्हाये एक फल, साधु मिले फल चार।
सतगुरु मिलै अनेक फल, कहैं कबीर विचार।।
तिमिर गया रवि देखत, कुमति गई गुरुज्ञान।
सुमति गई अति लोभ से, भक्ति गई अभिमान।।
कबीर सब जग निरधना, धनवन्ता नहिं कोय।
धनवंता सोई जनिए, राम नाम धन होय।।

समर्पण


परम पूज्य सदगुरू कबीर साहेब के प्राकट्य धाम, लहरतारा धाम, लहरतारा, वाराणसी (उ.प्रदेश) के निर्माता एवं श्री कबीर धर्म स्थान खुरसिया (छत्तीसगढ) के कबीर पंथाचार्य, महाप्राण, विरक्त शिरोमणि, त्याग-मूर्ति, तपोनिष्ठ, आत्मलीन, सत्यलोक वाणी 1008 सदगुरू पं. श्री हजूर उदितनामा साहेब के श्री चरणों में, जिन्होंने जीवन भर दिशा-दिशाओं में कबीर साहेब के दिव्य अमृत सन्देश से जन-जन को संतृप्त किया।

एक परिचय


जन्म-5 जुलाई सन् 1949, ऊंचा गांव, त. कैराना, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य कबीरपंथी परिवार में। शिक्षा-पोषण में विशेष रूप से माँ का दुलार एवं शुभाशीष प्रमुख रहा। पिता श्री गिरिवर सिंह दूहन घरेलू तथा गांधी खादी आश्रम प्रतिष्ठित बुनकर रहे। पिता के विनम्र धार्मिक एवं उदार स्वभाव से प्रभावित होकर, धर्म के प्रति निष्ठा बाल्यकाल से ही बलवती रही।

कबीरपंथ के सुप्रसिद्ध सत्यलोकवासी पूज्य महन्त श्री रघवर दास जी साहेब (सीताराम बाजार दिल्ली एवं छपरौली उत्तर प्रदेश) कुल गुरू रहे। आप परिवार में स्व, पूज्य दादा आसाराम जी के पास प्रायः आते-जाते थे। आपके शुभ संयोग से बचपन में कबीरपंथी संस्कार मिला। इतना ही नहीं आप अपने आश्रम की सेवा में ले जाना चाहते थे, परन्तु दादा-दादी के आग्रह से ऐसा न हो सका। तो भी आपने परम स्नेह एवं आशीर्वचन की अज्ञातशक्ति पथ दर्शाती रही।
स्वयं श्रमिक रहे, अतः श्रमिकों जीवन से विशेष सहानुभूति। डी.सी. एम की स्व. भा. मि. पत्रिका के माननीय सम्पादक श्री रमेन्द्रनाथ बैनर्जी के सान्निध्य में लेखक के भरपूर प्रोत्साहन तथा शुभारम्भ। श्रम के गीत, लेख पत्रिकाओं में प्रकाशित। श्री सरस्वती साहित्य संस्थान के प्रमुख पूज्य श्री रामाश्रय पाठक जी, गुलाबसिंह स्वतंत्र तथा ज्ञानाचन्द्र ज्ञान आदि कवि मित्रों की साहित्यिक गोष्ठियों एवं कवि सम्मेलन में गद्य-पद्य की लगन फलती-फूलती रही। स्वत्रन्त्र विचारों के पक्षधर तथा लेखक में विशेष रुचि दर्शन, इतिहास, साहित्य के प्रेमी। ‘राजधानी कवि समाज’ के सदस्य। प्रकाशित-कबीर वाणी सत्य- ज्ञानामृत, अमृत संदेश।

कबीर प्राकट्य धाम लहरतारा (वाराणसी उत्तरप्रदेश) के निर्माता एवं श्री कबीर धर्म स्थान खरसिया (छत्तीसगढ) के कबीर पन्थाचार्य पं. श्री हजूर उदितनामा साहेब जी के शिष्य। परमात्मा-ज्ञान के जिज्ञासू। गुरू आदेशानुसार सेवा, सत्संग, भक्ति–भाव में रहते हुए ‘सत्यनाम’-ज्ञान’ के प्रचार में समर्पित। समता, सत्य, अहिंसा में विश्वास। मानव धर्म को नत–मस्तक।

--सत्यनाम--

सदगुरू कबीर साहेब के उपदेशों में ‘साखी’ का महत्त् अतुलनीय है। अन्धाकार जब गहन होता है, तो चिराग की आवश्यकता बढ़ जाती है। मनुष्य को भी जब यह आभास होता है कि मेरे जीवन पथ में भी गहन अंधेरा है, तो उसे पग-पग पर प्रकाश की जरूरत पड़ती है। यही वह मोड़ है, जहां हमें सदगुरू कबीर साहेब की वाणी से वह तेज प्रस्फुटित होता दिखाई पड़ता है।

साखी आंखि ज्ञान की, समुझ देख मन मांहि।
बिन साखी संसार का, झगड़ा छूटत नांहि।।

सदगुरु की वाणी ज्ञान की आँख है, यह आत्मसात करके ही जाना (समझा) जा सकता है। हमारे जीवन में संसार का ही झगड़ा नहीं, अपना भी झगड़ा हमें उलझाए रखता है, जिससे मुक्ति तभी संभव है जब ज्ञान रूपी दृष्टि की सृष्टि हो। विभिन्न उद्धरणों के माध्ययम से सद्गुरू कबीर साहेब मनुष्य को निर्मल एवं पवित्र बनने का उपदेश देते हैं।

ई जग जरते देखिया, अपनी-अपनी आग।
ऐसा कोई ना मिला, जासो रहिए लाग।।

यह साखी हमारे (वर्तमान) समाज में, व्यक्ति के रूपों को उजागर करती है। निरन्तर मनुष्य का गिरता हुआ स्वर अत्यधिक विचारणीय है। कंचन अपनी उपयोगिता सभी काल में सिद्ध करता है। सद्गुरु कबीर साहेब की वाणी भी हमारे जीवन में हर मोड़ पर सहारा देती है।

का रे बड़े कुल उपजे, जो रे बड़ी बुधि नाहि।
जैसा फूल उजारि का, मिथ्या लगि सरि जांहि।।

कभी-कभी मनुष्य मिथ्या अहंकार से अपने पतन को आमंत्रित करता है सभी दृष्टि से बड़ा हूं। धन से, पद से रूप से। ज्ञान के अभाव से यह सिलसिला कभी खत्म नहीं होता।

कबीर गर्व न कीजिए, रंक न हंसिए कोय।
अजहुं नाव समुद्र में, ना जाने क्या होय।।

मनुष्य अपने अन्दर अनेक रूपों का जन्म होता देखता है। अच्छा है, मनुष्य इसका हकदार भी है, क्योंकि मानव जीवन एक अवसर है, किन्तु पूर्ण ज्ञानोदय के अभाव में वह अपने छोटे-छोटे दृश्यों मे ही उलझ जाता है और उसे ही अपना धन समझ बैठता है। सतगुरू कबीर साहेब आगे का रास्ता बताते हैं-

यह मन तो शीतल भया, जब उपजा ब्रह्म ज्ञान।
जेहि बसंदर जग जरे, सो पुनि उदक समान।।

इस प्रकार भारतीय जनमानस अनेक तत्त्ववेत्ताओं, मार्गदर्शक एवं सद्गुरुओं को, पढ़ता एवं सुनाता आया है। सदगुरू कबीर साहेब सबसे विलक्षण एवं अद्वितीय हैं। क्यों है इसका निर्णय सुधी पाठक स्वयं करेंगे ! सद्गुरू कबीर साहेब की एक प्रसिद्ध साखी आपके लिए उद्धत करके अपनी बातें इसी शुभ कामना के साथ समाप्त करता हूँ कि, सदगुरु कबीर साहेब को पढ़ने-सुनने एवं आत्मसात करने से पूर्व, हम अपने सभी बंधनो, से मुक्त हों, जो हमारे लिए सदगुरु की वाणी को अपनाने में बाधक हैं।

यहां ई सम्बल करिले, आगे विषई बाट।
स्वर्ग बिसाहन सब चले, जहां बनियां न हाट।।
जिन खोजा तिन पाईयां, गहरे पनी पैठ।
मैं बपुरी डूबन डरी, रही किनारे बैठ।।

श्री लालचन्द दुहन ‘जिज्ञासु’ जी कि पुस्तक ‘कबीर वाणी अमृत सन्देश’
जो कि ‘कबीर साखी ग्रंथ’ से सारगर्भित साखियां ग्रहण की गई हैं, उन साखियों के अर्थ को श्री लालचन्द दूहन ‘जिज्ञासु’ ने पूरे मनोयोग और अपनी अर्थ, चिन्तन-शक्ति के द्वारा सरल, सुबोध और भाव-पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। साखियों की अन्तरात्मा-रूप को सरल से सरल भावों का प्रतिपादन करते हुए पाठकों की चिन्तन-धारा से जोड़ दिया जाता है। साखियो के कठिन शब्दों के अर्थ को समझाने में किसी भी प्रकार की कमी नहीं की है। आपका हमेशा यही विचार रहा है कि साखियों के अर्थ को कम-से-कम पढ़ा हुआ पाठक भी सरलता से समझ सकें।

वैसे तो कबीर साहेब की वाणी के अर्थ को समझने में बड़ी कठिनाई होती है और आध्यात्मिक अर्थ को समझने में तो और भी ज्यादा, किन्तु, यदि टीकाकार कबीर साहेब की संकेतात्मक वाणियों को गहराई के साथ समझाता है, सोचता है और चिन्तन करता है, तो कठिन वाणी से नए से नए अर्थ का प्रतिपादन करना उसके लिए बिल्कुल सहज हो जाता है, तो इन साखियों की अन्तरात्मा को समझने में श्री दूहर ‘जिज्ञासु’ जी ने बहुत परिश्रम किया है और अपने भावों को अपनी टीका के साथ जोड़कर बहुत बड़ा उपकार किया है। मुझे आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि अपनी टीका का उत्तरोत्तर सम्मान और समादर होगा। पाठकगण अपने उदार हृदय से इस टीका को स्वीकार करते हुए आगे के लिए और भी टीका लिखने को उत्साहित करेंगे।

लोकोपकारता की दृष्टि से और वर्तमान समस्याओं को सरल-रूप से समाधान करने में सद्गुरु कबीर साहेब की वाणी आज भी प्रासंगिक है। आध्यात्मिक जगत में आन्तरिक चेतना को जगाने के लिए सद्गुरू कबीर सहेब ने अपनी साधनाओं का पूरा-पूरा लाभ प्रदान किया है। सदगुरू कबीर साहेब ने मानवीय शक्ति को जगाने के लिए लहरतारा धाम (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) के परम पावन लहर तालाब के कमल-पत्र पर मानवीय शरीर को धारण किया क्योंकि मानव समाज को सत्य का परिचय कराना था, इसीलिए उन्होंने शरीर का सहारा लिया। और इस सत्य का परिचय कराने में पूरे कामयाब रहे हैं) इसी लहरतारा सदगुरु कबीर की प्राकट्य भूमि में बहुत बड़ा भव्य एवं दिव्य स्मारक बन चुका है। जो भी दर्शनार्थी दर्शनों का लाभ लेना चाहते है। प्रसन्नता पूर्वक आएं और मानव जीवन को सफल बनाते हुए सदगुरु कबीर साहेब की आध्यात्मिक चेतना के द्वारा उनकी आध्यात्मिक प्रगतिशील वाणियों का चिन्तन, मनन और स्वाध्याय का लाभ लें। इससे आन्तरिक आध्यात्मिक शान्ति के साथ-साथ सारा जीवन मंगलमय हो जाएगा।
पाठकगण ‘दूहन’ जी की टीका का अपने उदार हृदय से स्वाध्याय करें यहीं मंगल कामना है।

मुकुन्दमणि नाम साहेब
10-1-2001
इलाहाबाद कुम्भ मेला

‘संत-भक्तों को सन्देश’

काशी की पवित्र पावन भूमि में परम-पुरुष, सत्य द्रष्टा सदगुरु कबीर साहेब का पुण्य धाम तालाब है। समस्त कबीर के श्रद्धालुओं के लिए पुण्य तीर्थ है। सत्यान्वेषक के लिए इस तालाब का पवित्र जल एक (हृदय) आईना है। कई सदियों से यह सूना था। इस पुण्य तीर्थ के उद्धार हेतु पहली बार जिस महापुरुष का ध्यान गया वह थे ‘परम पूज्य पंथ श्री हजूर उदितनाम साहेब’। अपने जीवन की सम्पूर्ण तपस्या से, अपने इष्ट ‘सदगुरु कबीर साहेब’ के धाम को अपने एक भव्य स्मारक का स्वरूप प्रदान कर समस्त मानव समाज के सामने स्थापित कर दिया है।
आज समस्त कबीरपंथ ही नहीं देश-विदेश से सदगुरु कबीर साहेब को जानने वाले श्रद्धालु इस पावन स्थली पर आकर दर्शन, सत्संग लाभ प्राप्त कर कृत-कृत्य होते हैं। परम पूज्य-सत्य वासी पंथ श्री हजूर उदितनाम साहेब ने तेल से भरा हुआ स्माकर रूप दीपक को जलाकर आप सबों को दिया, हम समस्त कबीरपंथी या कबीर साहेब के प्रेमी श्रद्धालु-जनों का दायित्व है कि इस प्रकाश को कभी बुझने न दें, कभी इसका तेल खत्म होने दें। इसकी पूर्णता हेतु सच्ची लगन, श्रद्धा, समर्पण एवं अपनी सत्य कमाई को समर्पण करने की आवश्यकता है।

शुभाकांक्षी श्री हजूर कुमुन्दमणि नाम साहब
कबीर धर्म-स्थान खरसिया, रायगढ़ (छत्तीसगढ़)
सदगुरू कबीर प्राकट्य धाम लहरतारा, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)

सद्गुरु कबीर प्राकट्यधाम, लहरतारा


हमारे महान देश भारत में वाराणसी (उत्तरप्रदेश) की पुण्य भूमि पर आज से लगभग 603 वर्ष पूर्व खिले कमल-पुष्पों के ‘लहरतारा सरोवर’ पर अध्यात्म-ज्ञान के उस विराट परम् प्रकाश-पुंज का प्राकट्य हुआ जिसे ‘कबीर’ नाम से जाना गया। वन्दनीय कबीर साहेब आध्यात्मिक-क्रान्ति के वह ‘सत्यपुरुष’ थे जिनसे अज्ञान-तिमिर छंटा, सदियों पुरानी नींद टूटी तथा विशुद्ध चेतना का उदय हुआ। उनके ज्ञानामृत संदेश से मिथ्या-मान्यताओं, परम्परागत पाप-कुरीतियों तथा प्रपंच-पाखण्ड के बन्धन कटे। समता का द्वार खुला, मानव-धर्म मुस्कराया। मनुष्य ने मनुष्य को पहचान गले से लगाया। अतः उनके श्रद्धालु संत, सेवक-भक्तों ने भक्ति-भाव से उनको ‘सदगुरु कबीर बन्दीछोड़’ कहा।