सुख-दुख का कारण बाहर कहीं नहीं है, बल्कि इसका कारण मनुष्य का अपना मन है। मनुष्य बाहरी प्राणी, पदार्थों, नाना विषयों को जानने-समझने का प्रयास करता है, यहां तक वह यह जानना चाहता है कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं। किंतु वह अपने मन को जानने-समझने का प्रयास नहीं करता। यदि मनुष्य अपने मन को ठीक से जान-समझ ले और मन के विकारों को दूर कर ले तो जीवन में दुख नहीं रहेगा। कबीर संस्थान नवापारा राजिम में सोमवार से शुरू हुए ध्यान शिविर के प्रथम सत्र में ध्यानार्थी साधकों को संबोधित करते हुए यह बातें संतप्रवर अभिलाष साहेब ने कही।
उन्होंने कहा कि इसीलिए सद्गुरू कबीर ने साधकों, विवेकियों को संबोधित करते हुए कहा है कि बुझ-बुझ पंडित मन चित लाय। अपने मन को चित लगाकर बुझो-समझो। सच्चा साधक दूसरों की गलतियों को नहीं देखता, किंतु वह अपनी गलतियों को देखता है और उन्हें दूर करने के लिए साधना करता है। संतप्रवर अभिलाष साहेब ने कहा कि जिस प्रकार धुनिया रूई को धुनकर उसके रेशे-रेशे को अलगकर साफ कर देता है, उसी प्रकार साधकों को चाहिए कि वह विवेक-विचार द्वारा अपने मन को धुनकर उसके सारे विकारों को दूर करे। जीवन में कहीं किसी प्रकार का दुख है तो उसका मूल कारण अहंकार कामना ही है। बिना अहंकार कामना के दुख हो नहीं सकता। हर आदमी एक प्रकार से शराब पिए हुए है। बाहर बोतल की जो शराब होती है उसका नशा तो थोडी देर में उतर जाता है, किंतु अहंकार की शराब का जो नशा है वह जिंदगी भर नहीं उतरता।
इस अहंकार की शराब के नशे के कारण हर आदमी पागल बना हुआ है। उन्होंने कहा कि वह जो नहीं कहना चाहिए वैसी बात कहता है। जो नहीं खाना चाहिए, वह खाता है। पूरे संसार में अहंकार की दावाग्रि लगी है। दुनिया के सभी साधकों ने चाहे वे किसी देशकाल, मत-संप्रदाय के रहे हों, पहले अपने मन को ही देखा-समझा और साधा है। जो अपने मन को देख-समझ लेता है वह कहीं उलझता नहीं। उसके जीवन से सारी उलझन दूर हो जाती है। वह अपना कल्याण तो करती है, बहुतों के लिए आदर्श एवं प्रेरणा स्रोत हो जाता है। जिस किसी को इस जीवन को सही अर्थों में जीना है और परम शांति, परम आनंद का अनुभव करना है उसे चाहिए कि वह ध्यान की गहराई
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