17 November 2010

आत्मबोध एवं जीवन की निर्मलता

शांति इच्छुक व्यक्ति को चाहिए कि वह गुरु की शरण में जाकर अपने तन-मन को निर्मल करे। गुरु की कृपा उपदेश के बिना न तो आत्मज्ञान हो सकता है औ न कल्याण का रास्ता मिल सकता है। साधव को चाहिए कि वह निश्छल और निर्मान होकर सबसे प्रियवाणी बोले। 

कटु वाणी बोलने वाले का मन कभी शांत नहीं हो सकता। वह हर समय अंदर जलता रहता है। कटु वाणी, मन की मलिनता, कटुता और अहंकार का सूचक है और जिसका मन मलिन, कटुता अहंकार से भरा है वह साधना कैसे कर सकता है। साधक सभी परिस्थितियों में सम रहे। साधना का फल ही है जीवन में समता आ जाना। बिना सहन किए और समता धारण किए कोई आत्म लाभ नहीं प्राप्त कर सकता। श्री कबीर संस्थान नवापारा राजिम में चल रहे साप्ताहिक ध्यान शिविर में उक्त विचार प्रकट करते हुए संत प्रवर अभिलाष साहेब ने आगे कहा कि संसार में अनेक प्रकार का ज्ञान है और सभी ज्ञान की उपयोगिता एवं आवश्यकता है, किंतु भौतिक क्षेत्र में आदमी चाहे कितना ज्ञानी एवं विद्वान क्यों न हो जाए उससे मन को शांति नहीं मिल सकती। सच्ची शांति तो गुरु ज्ञान से ही मिलती है। गुरु ज्ञान है- आत्मबोध एवं जीवन की निर्मलता। आदमी जितना जानता है उतने आचरण कर ले तो उसका जलता हुआ मन शीलत हो जाए। आदमी के जानने में कमी नहीं है। कमी है उसके आचरण में, करनी में। सद्गुरु कबीर ने कहा जस कथनी तक करनी, जस चुंबक तस ज्ञान। अर्थात जब कथनी के अनुरूप करनी हो जाती है तब ज्ञान चुंबकीय हो जाता है। इसीलिए सच्चे वैराग्यवान, सदाचारी संतों को देख कर आदमी का मन बरबस आकर्षित हो जाता है। कथनी के अनुरूप करनी होने की पहचान है मन में राग द्वेष न होना। हर व्यक्ति को अपना जीवन व्यवहार ऐसा बनाना चाहिए कि शिकवा-शिकायत के लिए जगह न रह जाए। आदमी अपने कर्तव्य को न देखकर दूसरे के कर्तव्य को देखता है। अपने दोषों का त्याग न कर दूसरों के दोषों को देखने लगता है तब उसका मन कटुता एवं शिकायत से भर जाता है। बोधवान, ज्ञानी व्यक्ति के मन में किसी के लिए कोई कटुता-शिकायत नहीं रह जाती। राग-द्वेष मुक्त साधक विनम्र होता है क्योंकि उसके मन में न किसी का अहंकार रहता है और न किसी के लिए कटुता। सद्गुण संपन्न साधक व्यक्ति स्वाभाविक विनम्र होता है।

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